आखिरी ग़ज़ल

आखिरी ग़ज़ल
Desh Ratna

Monday, August 2, 2010

देश रत्न की संग्राहिका

अध्यात्म

जब मयकदा छूटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद,
मस्जिद हो, मदरसा हो, कोई ख़ानक़ाह1 हो।

गा़लि़ब


ये कह दो हज़रते-नासेह2 से गर समझाने आये हैं,
कि हम दैर-ओ-हरम3 होते हुए मयख़ाने आये हैं।

वहशत गोंडवी


निकल कर दैर-ओ-काबा से अगर मिलता न मयख़ाना,
तो ठुकराये हुए इन्साँ, ख़ुदा जाने कहां जाते।

क़तील शिफ़ाई


मैंने पूछा क्या हुआ वो आपका हुस्न-ओ-शबाब,
हँस के बोला वो सनम, शाने-ख़ुदा थी, मैं न था।

ज़फ़र


हुदूदे-ज़ात से4 बाहर निकल के देख ज़रा
न कोई गै़र, न कोई रक़ीब5 लगता है।

सौदा


तोड़ डालीं मैंने जब क़ैदे-तअय्युन6 की हदें,
मेरी नज़रों में बराबर कुफ़्रों-ईमां हो गया।

हसरत मोहानी


1. फ़क़ीरों और साधुओं के रहने का स्थान, 2. उपदेशक महोदय, 3. मन्दिर-मस्जिद, 4. व्यक्ति-सीमाओं से 5. प्रतिद्वन्द्वी, 6. हठवादिता का बन्धन।



तेरी मस्जिद में वाइज़1 ख़ास हैं औक़ात2 रहमत के,
हमारे मयकदे में रात-दिन रहमत बरसती है।

अमीर मीनाई


ये दामन और गरेबाँ अब सलामत रह नहीं सकते,
अभी तक कुछ नहीं बिगड़ा है, दीवानों में आ जाओ।

अली सरदार जाफ़री


दुनिया भी उसी की है, दुनिया को जो ठुकरा दे,
जितना उसे ठुकराया, उतनी ही क़रीब आयी।

अमरनाथ


भागती फिरती थी दुनिया जब तलब करते थे हम,
जब से नफ़रत हुई, वह बेक़रार आने को है।

दर्द


तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा3 दुनिया,
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं।

मजाज़ लखनवी


देखा जो उन्हें सर भी झुकाना न रहा याद,
दरअस्ल नमाज़ आज अता हमसे हुई है।

कृष्णबिहारी नूर


साक़िया, तिश्नगी की ताब नहीं4,
ज़हर दे दे, अगर शराब नहीं।

रियाज़ ख़ैराबादी


जिस पै बुतखा़ना तसद्दुक़5, जिस पै काबा भी निसार,
एक सूरत ऐसी भी सुनते हैं बुतख़ाने में है।

अमीर मीनाई


1. धर्मोपदेशक, 2. अवसर, 3. नाविक, 4. प्यास असह्य हो गयी, 5. न्योछावर।


चाप सुनकर जो हटा दी थी, उठा ला साकी़,
शैख़ साहब हैं, मैं समझा था मुसलमाँ है कोई।

अकबर इलाहाबादी


नहीं है ताब ग़मे-ज़िंदगी उठाने की,
बता दे राह कोई अब शराबखा़ने की।

अब्दुल गफ़्फ़ार


तरदामनी पै शैख़ हमारी न जाइयो,
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें।

दर्द


हुआ है चार सिज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुमको,
ख़ुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है।

नासिख़


अक़्ल गुस्ताख़ है रिन्दों से उलझ पड़ती है,
इसको मयख़ाने के आदाब सिखा दे कोई।

जलील मानिकपुरी


मुझे शरअ1 से कोई चिढ़ नहीं, इस इत्तिफ़ाक़ का क्या करूँ,
कि जो वक़्ते-बादाकशी2 है, वही वक़्त है नमाज़ का।

अमीर मीनाई


ख़ुलूसे-दिल से सिज्दे हों तो उन सिज्दों का क्या कहना,
वहीं काबा सरक आया जबीं3 रख दी जहां मैंने।

सीमाब अकबराबादी
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1. धर्मशास्त्र, 2. पीने का समय, 3. माथा।



कौन यहाँ छेड़े दैर-ओ-हरम के झगड़े,
सिज्दे से हमें मतलब, काबा हो या बुतख़ाना।

असग़र गोंडवी


नहीं माँगता साक़िया जाम-ओ-साग़र,
फ़क़त तुझसे इक बेख़ुदी माँगता हूँ।

रियाज़ खै़राबादी


तुम्हारा नाम लेने से मुझे सब जान जाते हैं,
मैं वो खोयी हुई इक चीज़ हूँ जिसका पता तुम हो।

क़तील शिफ़ाई


कहीं ज़िक्रे-दुनिया, कहीं ज़िक्रे-उक़्बा1,
कहाँ आ गये मयकदे से निकलकर।

अदम


चोट पै चोट खाये जा, दिल की तरफ़ कभी न देख
इश्क़ पै ऐतमाद रख, हुस्न की बेरुखी़ न देख,
इश्क़ का नूर नूर है, हुस्न की चाँदनी न देख,
तू ख़ुद तो आफ़ताब है, ज़र्रे में रोशनी न देख,
इश्क़ की मंज़िलों से दूर, राहे-नियाज़ कर उबूर2
फ़ितरते-बन्दगी समझ, की़मते-बंदगी न देख।

जिगर मुरादाबादी


ये दैरो-काबा की मंज़िलें तो गुज़ारगाहे-बन्दगी3 हैं,
जहाँ पै सिज्दे हैं बेख़ुदी के, वहाँ कोई आस्ताँ4 नहीं है।

शेरी भोपाली
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. परलोक-चर्चा, 2. प्रार्थना-पथ पार कर, 3. वन्दना-पथ, 4. देहरी।



जहाँ सिज्दे को मन आया, वहीं पर कर लिया सिज्दा,
न कोई संगे-दर मेरा, न कोई आस्ताँ मेरा।

हसरत मोहानी


तेरे नक़्शे-क़दम मैंने यहाँ पाये, वहाँ पाये,
तेरे कूचे में जब चाहा, वहीं मैंने जबीं रख दी।
तमाम ज़ादे-सफ़र1 रास्ते में लुट जाता,
ख़ुदा ने ख़ैर किया, कोई रहनुमा न मिला।

‘राज़’ इलाहाबादी


दिखाया गया है हक़ीक़त का जल्वा,
मगर हर हक़ीक़त छिपायी गयी है।

मीना क़ाजी़


हरदम नज़र को ही न थी जल्वों की आरजू,
जल्वों ने भी नज़र को पुकारा कभी-कभी।

साबिर दत्त ‘साबिर’


ज़हर मिलता रहा, ज़हर पीते रहे,
यूँ ही मरते रहे, यूँ ही जीते रहे,
ज़िन्दगी भी हमें आज़माती रही,
और हम भी उसे आजमाते रहे।

मयकशो, मय की कमी-बेशी पै नाहक़ जोश है,
ये तो साक़ी जानता है किसको कितना होश है।

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