दौलत से मुहब्बत तो नहीं थी मुझे लेकिन
बच्चों ने खिलौनों की तरफ़ देख लिया था
जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर
धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा
कम से बच्चों के होंठों की हँसी की ख़ातिर
ऐसे मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
क़सम देता है बच्चों की, बहाने से बुलाता है
धुआँ चिमनी का हमको कारख़ाने से बुलाता है
बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद
अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते
इन्हें फ़िरक़ा परस्ती मत सिखा देना कि ये बच्चे
ज़मी से चूम कर तितली के टूटे पर उठाते हैं
सबके कहने से इरादा नहीं बदला जाता
हर सहेली से दुपट्टा नहीं बदला जाता
बिछड़ते वक़्त भी चेहरा नहीं उतरता है
यहाँ सरों से दुपट्टा नहीं उतरता है
कानों में कोई फूल भी हँस कर नहीं पहना
उसने भी बिछड़ कर कभी ज़ेवर नहीं पहना
मुझे बुलाता है मक़्तल मैं किस तरह जाऊँ
कि मेरी गोद से बच्चा नहीं उतरता है
शर्म आती है मज़दूरी बताते हुए हमको
इतने में तो बच्चों का ग़ुबारा नहीं मिलता
तलवार तो क्या मेरी नज़र तक नहीं उठ्ठी
उस शख़्स के बच्चों की तरफ़ देख लिया था
रेत पर खेलते बच्चों को अभी क्या मालूम
कोई सैलाब घरौंदा नहीं रहने देता
धुआँ बादल नहीं होता कि बचपन दौड़ पड़ता है
ख़ुशी से कौन बच्चा कारखाने तक पहुँचता है
मैं चाहूँ तो मिठाई की दुकानें खोल सकता हूँ
मगर बचपन हमेशा रामदाने तक पहुँचता है
हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जाएगा
कि बच्चा लड़खड़ाएगा तो चलना सीख जाएगा
इक सुलगते शहर में बच्चा मिला हँसता हुआ
सहमे—सहमे—से चराग़ों के उजाले की तरह
मैंने इक मुद्दत से मस्जिद नहीं देखी मगर
एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा
इन्हें अपनी ज़रूरत के ठिकाने याद रहते हैं
कहाँ पर है खिलौनों की दुकाँ बच्चे समझते हैं
ज़माना हो गया दंगे में इस घर को जले लेकिन
किसी बच्चे के रोने की सदाएँ रोज़ आती हैं
फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं
वो बच्चे रेल के डिब्बे में जो झाड़ू लगाते हैं
हुमकते खेलते बच्चों की शैतानी नहीं जाती
मगर फिर भी हमारे घर की वीरानी नहीं जाती
अपने मुस्तक़्बिल की चादर पर रफ़ू करते हुए
मस्जिदों में देखिये बच्चे वज़ू करते हुए
मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं
मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ
घर का बोझ उठाने वाले बच्चे की तक़दीर न पूछ
बचपन घर से बाहर निकला और खिलौना टूट गया
जो अश्क गूँगे थे वो अर्ज़े—हाल करने लगे
हमारे बच्चे हमीं पर सवाल करने ल्गे
जब एक वाक़्या बचपन का हमको याद आया
हम उन परिंदों को फिर से घरों में छोड़ आए
भरे शहरों में क़ुर्बानी का मौसम जबसे आया है
मेरे बच्चे कभी होली में पिचकारी नहीं लाते
मस्जिद की चटाई पे ये सोते हुए बच्चे
इन बच्चों को देखो, कभी रेशम नहीं देखा
भूख से बेहाल बच्चे तो नहीं रोये मगर
घर का चूल्हा मुफ़लिसी की चुग़लियाँ खाने लगा
No comments:
Post a Comment