मुर्ग़, माही, कबाब ज़िन्दाबाद
हर सनद हर ख़िताब ज़िन्दाबाद
मेरी बस्ती में एक दो अंधे
पढ़ चुके हर किताब ज़िन्दाबाद
यार अपना है क्या रहे न रहे
शहर की आब-ओ-ताब ज़िन्दाबाद
सीख लेते हैं गूंगे बहरे भी
नाराए-इंक़िलाब ज़िन्दाबाद
रूई की तितलियाँ सलामत बाश
काग़ज़ों के गुलाब ज़िन्दाबाद
लाख परदे में रहने वाले तुम
आजकल बेनक़ाब ज़िन्दाबाद
फिर पुरानी लतें पुराने शौक़
फिर पुरानी शराब ज़िन्दाबाद
दिन नमाज़ें नसीहतें फ़तवे
रात चंग-ओ-रबाब ज़िन्दाबाद
रोज़ दो चार छे गुनाह करो
रोज़ कारे-सवाब ज़िन्दाबाद
तूने दुनिया जवान रक्खी है
ऎ बुज़ुर्ग आफ़ताब ज़िन्दाबाद
आदरणीय राहत इन्दौरी जी की इस सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुती पर आभार
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