आखिरी ग़ज़ल

आखिरी ग़ज़ल
Desh Ratna

Monday, August 16, 2010

शेरो-शायरी

मर जायें जो मजार ताज सी बने हाय
कौन कमबख्त जीना चाहे, मरना न चाहे
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हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है
आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है
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इन्तजार के फूल तुमसे न तोड़े जाएंगे गुलचीं
शाखे मोहब्बत में, एक कली सदियों में खिलती है।
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हमारे तो हलक सूख रहे हैं, पानी की चंद बूंदों के लिए
न जाने कौन लोग हैं, जो दरिया में नहा कर आए हैं।
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शर्मों हया से उनकी पलकों का झुकना इस तरह ''शौक''
जैसे कोई फूल झुक रहा हो एक तितली के बोझ से।
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जुल्फ आपकी परेशां हो हजारों अश्आर बन जाए
और जो सँवर जाए तो एक ग़ज़ल बन जाए।
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जिन्दगी अपने आखरी मुकाम पे आके कहाँ आसरा पाती है
जैसे कांटे की नोंक पे, पानी की एक बूंद ठहर जाती है।

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